Tuesday, September 16, 2014

जब बनारस बन गया बैनयोटो (बनारस और क्योटो का मिश्रण)…… [हास्य ब्यंग्य] : लेखक: आनन्द वर्मा

यूँ तो मुझे बनारस  छोड़े हुए तक़रीबन सात से आठ  साल हो गए, मगर 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले बनारस इतना चर्चित कभी न रहा। पता नहीं क्यों मेरे   अंदर का बनारसीपन उछाल मार मार के बाहर आने को बेताब  है। ये किसका असर है ये जानने के लिए मैं बहुत बेचैन हूँ। हद तो तब हो गई जब अगस्त के महीने में मैंने सुना की बनारस अब बनारस नहीं  रहेगा बल्कि क्योटो बन जायेगा।  इस खबर को पढ़ कर मेरे पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे, समझ में नहीं आ रहा था की मैं क्या करूँ। मैने तुरंत ही बनारस  अपने दोस्तों, घरवालों और परिचितों से बात की और पाया की वो सब भी इस खबर से खासे उत्साहित हैं।

मगर बार- बार ये ख्याल मन में आ रहा था की कैसे आखिर कैसे बनेगा अपना अल्हड़ बनारस क्योटो, बनारस के घाटों, सड़कों, गलियों, मंदिरों का नया स्वरुप कैसा होगा। इस खबर के बाद तो मैं तड़प उठा बनारस की एक झलक देखने को, क्योंकि पता नहीं जब मैं अगली बार जाऊं तो अपने शहर बनारस को पहचान भी पाउँगा या नहीं। मेरे मन में तरह-तरह के ख्यालात  भी आने लगे थे। इसी उत्सुकता में मैंने शिवगंगा (दिल्ली से बनारस की मानी जाने वाली राजधानी ट्रेन) एक्सप्रेस में  

अपना बनारस का आरक्षण तृतीया वातानुकूलित कोच में करवाकर चल पड़ा बनारस की सैर को और उसके पुराने अंदाज को  एक बार फिर जीने के लिए। चूँकि मैने ऑफिस से ही ट्रेन  पकड़ी थी इसलिए थकावट कुछ ज्यादा थी। मैं रात्रि भोजन करके अपने बर्थ पे जा के लेट गया और पता नहीं कब मेरी आँख लग गयी।

अगली सुबह जब शिवगंगा एक्सप्रेस वाराणसी रेलवे स्टेशन के परिसर में प्रवेश कर रही थी तो प्लेटफार्म पे वाराणसी जंक्शन की बोर्ड की जगह बैनयोटो इंटरनेशनल का बोर्ड लगा हुआ था और धीमी गति से रेंगते हुए ट्रेन जब प्लेटफार्म संख्या एक पर रुकी तो मानो उस पल लगा जैसे मैं नई दिल्ली के इंदिरा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के टर्मिनल थ्री पर पहुँच गया हूँ। ट्रैन से उतरकर रेलवे स्टेशन की उस विहंगम परिसर को अभी मैं पूरी तरह निहार भी नहीं पाया था तभी निकास द्वार पर टीटी साहब ने हाथ के ईशारे से मुझे सरलता से रुकने का संकेत दिया। मैंने अपना टिकट दिखाया, मगर टीटी साहब ने कहा की उन्हें टिकट नहीं चाहिए। और जिस चीज की माँग उन्होनें मेरे सामने रखी उसे सुनके मेरे होश पाख्ता हो गए। टीटी साहब ने कहा की जनाब आपको पता नहीं की बनारस अब बनारस नहीं रहा बैनयोटो (जो की बनारस का नया नामकरण होने के बाद सुनिश्चित हुआ  है)  बन गया है और बैनयोटो की सीमा को अंतरराष्ट्रीय सीमा घोषित कर दिया गया है, तथा बनारस में प्रवेश के लिए अब पासपोर्ट और वीज़ा अनिवार्य है। मैने टीटी साहब से इस बात की अनिभिज्ञता जाहिर करते हुए मेरे पास पासपोर्ट तथा बैनयोटो का वीज़ा नहीं होने की बात कबूली मगर टीटी साहब की नज़रों ने मुझे मेरे पिछड़े होने का एहसास कराया। मेरे बहुत मिन्नते करने के बाद टीटी साहब इस शर्त पर मान गए की चूँकि आप बनारस के मेकओवर के बाद पहली बार आए हैं, इसलिए इसबार आपको सात दिनों के लिए बैनयोटो में रहने की इज़ाज़त दी जाती हैं। और टीटी साहब ने बड़े ही कड़े शब्दों में मुझे चेतावनी भी दे डाली की अगर आपने सात दिनों के भीतर बैनयोटो नहीं छोड़ा तो मैं भारतवर्ष के किसी भी राज्य या केंद्रशासित प्रदेशों का भ्रमण नहीं कर पाउँगा।  कुछ कागजी कारवाई करने के बाद मैंने टीटी साहब का शुक्रियादा किया और स्टेशन परिसर से बाहर आ गया। मैं हैरान रह गया बाहर का नज़ारा देख कर, क्योंकि सारी व्यस्था ही पलट चुकी थी। एक साहब जो की मेरे तरह ही पहली बार बैनयोटो आए थे , उनका मुँह खुला का खुला रह गया।  उन जनाब के मुँह में पान की लालिमा अपनी छठा बिखेर रही थी, तभी एक पुलिसवाला वहां आया और उसने उन जनाब से कहा की पान खाने के ज़ुर्म में आपको 500 जापानीज येन चुकाने पड़ेंगे। जनाब ने मौके की नज़ाकत को देखते हुए कहा की मैं ये पान की पीक थूक देता हूँ, तो उसपर पुलिसवाले ने कहा तब तो जुर्माने की राशि बढ़कर 1000 जापानीज येन हो जाएगी और चूँकि आपको रंगे मुँह पकड़ा गया है इसलिए आपका चालान कटेगा ही कटेगा।  जनाब खुद को फँसता देख जुर्माने की राशि को भरने को राजी तो हुए मगर  जापानीज येन न होने की असमर्थता भी जाहिर कर डाली। इसपर पुलिस वाले ने मुस्कराकर स्टेशन परिसर में ही मुद्रा विनिमय काउंटर की तरफ इशारा किया।  खैर उस मामले को वहीँ पर छोड़ कर मै आगे निकल गया मगर खांटी बनारसियों की बैनयोटो में स्थिति का थोड़ा बहुत अंदाजा मुझे लग रहा था।

मेरा घर सिगरा क्षेत्र में है , जो की रेलवे स्टेशन से मात्र दो से ढाई किलोमीटर के दायरे में आता है। चारों तरफ साइन बोर्ड लगे हुए थे, जिससे भी कुछ पूछने की कोशिश करता सभी साइन बोर्ड की तरफ इशारा करते और कहते की मेरे पास बिल्कुल भी वक़्त नहीं है, कृपया साइन बोर्ड पढ़ें और अपनी परेशानियों का हल खुद ही निकाले।  काफ़ी मिन्नतें करने के बाद एक पुलिसवाले ने बताया की चूँकि आपका घर रेलवे स्टेशन से मात्र दो से ढाई किलोमीटर के दायरे में आता है और बैनयोटो में सार्वजनिक परिवहन की सुविधा तीन या उससे अधिक के किलोमीटर के लिए ही उपलब्ध है। ये नियम बैनयोटो के निवासियों के सेहत को ध्यान में रखकर बनाया गया है। उसने मुझे राय दी की कृपया साइन बोर्ड  पढ़ें, अपने स्मार्ट फोन का जीपीएस शुरू करें और पैदल अपने घर की तरफ रुख करें। मैने भी भरी मन से जीपीएस शुरू किया तथा उसमें अपना गंतव्य स्थान माधोपुर सिगरा डालकर चल पड़ा।  मगर  जीपीएस जो जगह और रास्ता मुझे दिखा रहा था , उन जगहों और रास्तों से मैं बिल्कुल ही अंजान था, क्योंकि स्टेशन से माधोपुर के बीच के जगहों के नाम और सूरत बिल्कुल ही बदल गए थे जैसे की इंग्लिशिया लाइन अब बैनयोटो लाइन, काशी विधापीठ अब बैनयोटो स्टडी यूनिवर्सिटी, भारत माता मंदिर अब मदर इंडिया टेम्पल, चन्दुआ सट्टी अब जापानीज वेजीटेबल सेंटर हो चुका था। चारों तरफ बनारस और क्योटो का मिश्रण दिख रहा था , साईन बोर्ड हिंदी, अंग्रेज़ी के साथ-साथ जापानीज भाषा में भी संकेत दे रहे थे। ऐसा लग रहा था की जैसे गिरिजाघर चैराहे पर ठंडई को तैयार करते वक़्त उसका मिश्रण गिलास में हिलाते हैं , ठीक उसी तरह बनारस को क्योटो नामक ठंडई में बैनयोटो बना दिया गया हो। मैं इस बैनयोटो के पीछे उस शहर को ढूंढने की कोशिश कर रहा था जहाँ मैं अपने दोस्तों के साथ उस शहर की गलियों की खाक छाना करता था। खैर  जीपीएस और साईन बोर्ड की मदद से जब अपने घर पहुँचा तो पाया की जहाँ भारतीय देवी देवतावों की जगह हुआ करती थी वहां पर लाफिंग बुध्धा मुस्कुराकर मेरा स्वागत कर  रहे थे और माता वैष्णों देवी की फोटो के साथ तोजी टेम्पल की फोटो ने भी अपनी जगह सुनिश्चित कर ली थी।

पिताजी ने घर में घुसते ही दिन के खाने से लेकर रात्रि के भोजन तक का समय सुनिश्चित कर दिया तथा मुझे सख्त हिदायत दी की समय का खासा ध्यान रखा जाये और समय की महत्ता पर दो चार लाइनों का भाषण भी दे डाला। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था की पिताजी इतने सख्त कैसे हो गए मगर सहसा मुझे याद आया की मैं बनारस नहीं बैनयोटो में हुँ जहाँ अब वीज़ा के बगैर प्रवेश निषेध है। खाने के मेज पर ही पिताजी और बड़े भाई ने बैनयोटो के सारे नियम कानून बता दिए और ये भी साफ़कर दिया की कोई भी नियम को तोड़ने पर चालान जापानीज येन में चुकाना पड़ेगा और दो तीन मुद्रा विनिमय केंद्र का पता भी बता दिया।

मैंने अपने कुछ दोस्तों को फ़ोन करके उनसे शाम को मिलने का समय सुनिश्चित कर लिया। पहले हम सभी दोस्त लंका या अस्सी घाट पे एकत्रित हुआ करते थे, मगर इस बार दोस्तों ने कहा  गैनकैम  नदी (गंगा और कामो नदी क्योटो में बहने वाली का मिश्रित नाम जो की बनारस से गुजरने वाली गंगा का नया नाम हो गया था)  के बैनक्योटो घाट (दशाश्वमेध घाट का नया नाम) पे मिलेंगे। तय समय के अनुसार मैने अपनी बाइक निकाली, मगर वो स्टार्ट नहीं हो रही थी , तभी पिताजी ने पीछे से आवाज लगाई की जबतक हेलमेट नहीं लगाओगे तबतक बाइक नहीं स्टार्ट होगी तथा ये भी बता दिया की बाइक में लगे जीपीएस के मदद से हम तुम्हारी लोकेशन को ट्रेस करते रहेंगे।

बनारस का तो पूरा हुलिया ही बदल चूका था, पान की दुकाने तो थी मगर उनपर लगे बोर्ड पर लिखा था पान खरीदें मगर खाएं अपनी जिम्मेदारी पे। साफ़ सुथरे रास्ते, ई -रिक्शा , सुविधायुक्त सार्वजनिक परिवहन तो थे मगर गायब था तो हवा में लहराती पान की पीकेँ , अल्हड़ और बेफिक्र बनारस, उसकी मौज़ मस्ती ,उसकी बौद्धिकता, उसकी आध्यात्मिकता , उसकी ठिठोली, चहल-पहल और बेचैनी। जब भी रास्ते में मैं उस पुराने बनारस की यादों में खो जाता,  तभी बैनयोटो की कोई नई चीज़ मुझे वर्तमान का एहसास कराती।  ऐतिहासिक गोदौलिया चौराहा जो  बैनक्योवालिया चौराहा हो चूका था और मशहूर ठंडई की दुकान वहाँ पर मौजूद तो थी मगर ठंडई बन्द डिब्बे में बिक रहा था, ये सब शहर की गन्दगी साफ़ करने का एक तरीका मालूम हो रहा था। ठंडई तो मैंने रूककर जरूर पी मगर स्वाद बनारसी नहीं क्योटो वाला था।

दोस्तों से मिलकर बड़ी ख़ुशी हुई, सभी दोस्तों ने अपने -अपने अनुभवों को बाटें जो उन्होंने बनारस को बैनयोटो बनते हुए महसूस किया था। तभी हमें एक सुचना सुनाई दी की घाट पर रात्रि दस बजे के बाद रुकना वर्जित है, हमसब दोस्तों ने जब अपनी-अपनी घड़ी देखी तो करीब रात्रि के दस बजकर पाँच मिनट का वक़्त हो रहा था। उत्तर प्रदेश पुलिस जिसका नाम बैनयोटो पुलिस हो चूका था, उसके एक ऑफिसर ने हमें जाने का इशारा करते हुए कहा की जाते वक़्त सभी अपने-अपने हिस्से का घाट पे पाँच मिनट अधिक रुकने का जुर्माना भरकर जाएँ। मैं अपनी जेब में जापानीज येन टटोल ही रहा था तभी किसीने मुझे जगाया और कहा की भाई साहब बनारस स्टेशन आ गया है, और मुझे एहसास हुआ की मैं सपना देख रहा था और इस बात का बेहद सुकुन की मैं बैनयोटो नहीं अपने बनारस रेलवे स्टेशन में उतर रहा हूँ।

इस बार फिर बनारस स्टेशन के निकास द्वार पर टीटी साहब ने मुझे रोका, मैंने सहजता पूर्वक अपना टिकट उन्हें सौंपा, जिसका निरिक्षण कर टीटी साहब ने विनम्रता से मुझे जाने के लिए कहा। मैं मुस्कुराकर अपने घर की तरफ चल पड़ा ये सोच कर की इस बार बिना वीज़ा के ही बैनयोटो अरे क्षमा कीजिये बनारस में प्रवेश मिल गया।